अर्ध कुम्भ : रहस्य एवं आध्यात्मिक महत्व

सनातम धर्म में कुम्भ मेला एक अत्यंत महत्‍वपूर्ण पर्व है, जिसमें दुनिया भर से करोड़ो श्रद्धालु संगम स्थल में पवित्र स्नान करने के लिए एकत्रित होते हैं। कुम्भ का पर्व 12 सालों के अंतराल में मनाया जाता है। प्रयाग में दो कुंभ मेलों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुम्भ भी होता है।

कुम्भ शब्द का अर्थ ‘कलश’ या ‘घड़ा’ होता है। कुम्भ से जुड़ी कई पौराणिक एवं आध्यात्मिक कथाएँ प्रचलित हैं, जिनमें से ‘अमृत मंथन’ के कलश से जुड़ी हुई कथा सबसे अधिक लोकप्रिय व प्रमुख मानी जाती है। कथा के अनुसार, अमृत मंथन के समय क्षीरसागर से अनेक बहुमूल्य रत्नों और औषधियों के साथ साथ अमृत से भरा हुआ एक कलश भी निकला था। इस कलश को प्राप्त करने के लिए दानवों और देवताओं के बीच 12 दिनों तक लगातार युद्ध चलता रहा। इस युद्ध के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में कलश से अमृत की बूंदें गिरी थीं। तभी से इन स्थानों पर कुम्भ मेला का आयोजन होता रहा है।  

मेले का शुभारंभ मकर संक्रांति से होता है और इस दिन कुम्भ स्नान योग बनता है। मान्यताओं के अनुसार, इस दिन से शुरू होने वाले स्नान तिथियों के दौरान, पवित्र नदी में डुबकी लगाने से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं।   

अर्ध कुम्भ की अवधि के दौरान, ग्रहों की विशेष स्थितियों की वजह से यह नदियाँ और भी अधिक पवित्र एवं औषधिमय हो जाती हैं। इस कारण विश्व भर से हर संत समुदाय एवं आम श्रद्धालुजन, अपनी अंतःकरण की शुद्धि के लिए यहाँ आते हैं। इसके साथ ही यह संपूर्ण समय, आत्मिक चिंतन और ध्यान एवं साधना के लिए उपयुक्त माना गया है।